शनिवार, 10 अगस्त 2019

विधु-वधु

प्रथम हास भृकुटि-विलास
चन्द्र-हृदय पर छा गई
अम्बर के आँगन में देखो
विधु-वधु वह आ गई।

बरसाती बादल से धुलकर
चन्दन का उबटन मलकर
मूर्तिमान हो प्रकट गए हैं
स्वयं रति के गुण रलकर
एक पलकभर लखकर ही
स्तब्ध हुए तरु-पादप-दल
शर्मीले से नयन झुकाकर
देख रहे अवनी का तल

झुरमुट में झींगुर की टोली
गीत प्रणय का गा गई
अम्बर के आँगन में देखो
विधु-वधु वह आ गई।

आओ तो ओ आली यामा
प्रिय-मिलन कुछ करो सुलभ
मन मे कुछ भीति सी है
पर तन-यौवन है रहा पुलक
सखी निशा आती धीरे से
काला सा आँचल डाले
ओट किए संध्या को तब
आगे कितने दीपक बाले

सकुचाती सी सहमी सहमी
प्रिय-स्पर्श वह पा गई
अम्बर के आँगन में देखो
विधु-वधु वह आ गई।

अरविन्द सांध्यगीत

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

संध्या की संधि में साधे साधक बनकर कितने गीत
नाम रखकर सांध्यगीत बोलो क्या काम किया अलीक?
अरविन्द सांध्यगीत
संपर्क सूत्र:-8696279384
मैं कबसे खुद को
किए हुए हूँ कवि
और तुम सब नासमझ
समझ रहे हो केवल रवि
हुई भोर
लाया शीतलता
चढा दिन
हुआ तेजयुक्त
कहीं सूखा दिए कपड़े
कहीं फसलों पर पानी ले आया
चला दिए कहीं कुएँ
खींच लाया
बरबस बादलों को
और जब ओट हुई उनकी
तुम ही करने लगे संदेह
मेरी क्षमता
मेरे तेज पर
अरे भाई...!
आखिर मैं कवि हूँ
कह रहा हूँ.....
नहीं खाली रवि हूँ
माना कि सृजन ही
रवि का कर्म है
पुनः अनुसृजन ही धर्म है
वो भी तो चाहेगा प्रतिफल
होगा कोई उसका भी ध्येय
जाना है उसे क्षितिज तक
तो ढलना तो पड़ेगा ही
मिलना है जो साँझ-सखी से
तो चलना तो पड़ेगा ही
बाकी ये चिंताएँ तुम्हारी
सब व्यर्थ है
इन सबमें इसका
नहीं कोई कदर्थ है
पल दो पल को ठहर क्षितिज
क्षणिक सुख पायेगा
देख प्रियतमा संध्या को
फूर्त आगे बढ जायेगा
मत सोचो.....
मैं कह रहा हूँ
नहीं ये रास रचायेगा
क्योंकि.......
ये तो रवि की नियति नहीं है
साँझ-सखी और रवि की
साथ में कोई गति नहीं है
तुम सबको आलोकित करने
कल आ ही जायेगा फिर
अभी कहीं और भी
तम हरना है
प्राची पर पुनः आयेगा कल
उषा से ही घिर!

अरविन्द सांध्यगीत
संपर्क सूत्रः-८६९६२७९३८४
क्या तुम चाहते हो कि कोई जीवन भर बस गीत लिखे
कविताओं में केवल तेरी प्रीत और बस प्रीत लिखे
तो तुम ये भी सोचो कि क्या एकतरफा ये संभव है
बिन बरसे भूमि पर उगना बीजों का क्या संभव है!

अरविन्द सांध्यगीत
संपर्क सूत्रः-८६९६२७९३८४

साभार दैनिक युगपक्ष


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गुरुवार, 27 जुलाई 2017

हे स्रोतस्विनी!



हे स्रोतस्विनी!
अब बह जाओ
तुम्हें बहना है तो
कोई और तह लाओ
बलात् रोकूं कब तक
तुमको
हे सरस शीतल सलिला
तुम ठहर गई हो
तो हो गई हो पंकिल
फिर भी तनिक देखो मुझे
मुझे जलजात स्वीकार्य है
जलकुंभी के भय से
ये जन तुमको नहीं रहने देंगे
ये फावड़े,कुदालियों की फाल
आँखे तरेरती तुम पर
कि जाओ तुम
हम स्वच्छ करें
यह धूसर गंदली सतह
बहादें इस भूमि पर
कल-कल करती कोई धारा
उससे सींचे फिर अपने
स्वार्थों के लंबे खेत
ऊँचे कद वाली फसलें
बने भले उर्वर ऊसर
पहले पहल राह करने वाली
काम्य तेरी निर्मम विस्मृति
हे प्रथम सुस्वादु सरित-धार
श्रेय छोड़ो तुम हेय हुई हो
तो ये तल छोड़ो
इसी में सार!

अरविन्द सांध्यगीत

विधु-वधु प्रथम हास भृकुटि-विलास चन्द्र-हृदय पर छा गई अम्बर के आँगन में देखो विधु-वधु वह आ गई। बरसाती बादल से धुलकर चन्दन का उबटन मल...